भारत विभाजन की मांग करने वाले ही आज अखंड भारत की बात करते हैं?
कभी इंडिया के विभाजन की मांग उठाने वाले और इसके लिए जनमानस में माहौल तैयार करने वाले ही आज अखंड भारत की बात कर रहे हैं। यही है जनता को नसबंदी।
भारत के विभाजन का ठिकड़ा गांधी और नेहरू पर फोड़ने का काम तथाकथित हिंदू नेताओं ने क्यों शुरू किया जबकि भारत विभाजन की मांग तो हिंदू महासभा, पंडत गणेश विनायक दामोदर सावरकर, पंडित श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित अल्लामा इकबाल इत्यादि ने की थी।
विभाजन का माहौल बनाने में पंडत बाल गंगाधर तिलक, पंडत मदन मोहन मालवीय, पंडत अल्लामा इकबाल, मुहम्मद अली जिन्ना पूंजा ने अपने अपने स्तर पर बहुत पहले से बनाना शुरू कर दिया था। फिर नेहरू और गांधी पर ठिकड़ा क्यों फोड़ा गया ?
असल में जिन नेताओं को अपने मंसूबों में नेहरू और गांधी के समरूपता और सामंजस्य के विचार रोड़ा लगते थे उन्होंने ही अपने वर्चस्व के लिए अंग्रेजों के नहीं बल्कि कांग्रेस विरोध में अखिल भारतीय हिंदू महासभा का गठन किया और विभाजनकारी विचारों को भारतीयों के दिलों में डालने शुरू किए यही काम दूसरी ओर मुस्लिम लीग कर रही थी।
इन दोनो धाराओं के बड़े विचारक मुहम्मद अली जिन्ना, गुलाम हुसैन हिदायतुल्लाह, सरदार औरंगजेब खान, फजलूल हक़, मदन मोहन मालवीय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, सावरकर और बाल गंगाधर तिलक इत्यादि के बीच घनिष्ठ संबंध भी रहे। सिंध प्रांत की मुस्लिम लीग और अखिल भारतीय हिंदू महासभा की मिलजुली सरकार ने ही पहली बार विधानसभा में पृथिक पाकिस्तान बनाए जाने का प्रस्ताव पारित किया था।
एक ओर दो विपरीत धड़े एक ही विचार पर अडिग थे की पृथक धार्मिक राष्ट्र चाहिए और दूसरी यही दोनो धार्मिक रूप से विपरीत धड़े एक साथ सिंध, बंगाल और NWFP में साथ मिलकर सरकार बना रहे थे।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1937 के भारतीय प्रांतीय चुनावों में हिंदू महासभा को पराजित करते हुए भारी जीत हासिल की। हालाँकि, 1939 में, भारतीय लोगों से परामर्श किए बिना भारत को द्वितीय विश्व युद्ध में युद्धरत घोषित करने की वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो की कार्रवाई के विरोध में कांग्रेस के मंत्रियों ने मंत्रिमंडलों से इस्तीफा दे दिया। इसका लाभ उठाते हुए हिंदुमहासभा ने अंग्रेजों को अपनी वफादारी का आश्वासन देते हुए कुछ प्रांतों में सरकारें बनाने के लिए मुस्लिम लीग और अन्य दलों से हाथ मिलाया। ऐसी गठबंधन सरकारें सिंध, NWFP और बंगाल में बनाई गई।
इन बातों से साफ है अखिल भारतीय हिंदू महासभा और इसके जनक व नेता शुद्ध रूप से राजनीज्ञ थे और राजनीतिक लाभ के लिए हिंदुत्व के एजेंडा को आगे किया गया था जबकि मूल सोच में अखिल हिंदू समाज की कोई जगह नहीं थी। बल्कि केवल अंग्रेजों की चाकरी से राजनीतिक लाभ मिले इसके लिए काम कर रहे थे।
इसी हिंदू महासभा की सोच से नाथूराम गोडसे जैसे विभत्स सोच के व्यक्ति पनपे जो एक निहत्थे बूढ़े व्यक्ति को मारकर हिंदुत्व वादियों के हीरो बने। उन हिंदू वादियों के जिन्होंने 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन से आधिकारिक तौर पर खुद को अलग रखा।
इतना ही नहीं भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अखिल भारतीय हिंदू महासभा के नेताओं ने इस आंदोलन से आधिकारिक दूरी ही नहीं बनाई बल्कि महासभा के नेता सावरकर ने चिट्ठियां लिखकर सरकारी ओहदों पर जमे रहने और आंदोलन में शामिल न होने की अपील की। महासभा के बंगाल से नेता पंडित श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 26 जुलाई 1942 को एक चिट्ठी लिखकर बकायदा ये तरीका बताया था की "सवाल यह है कि बंगाल में इस आंदोलन (भारत छोड़ो) का मुकाबला कैसे किया जाए? प्रांत का प्रशासन इस प्रकार चलाया जाना चाहिए कि कांग्रेस के सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद भी यह आंदोलन प्रांत में जड़ें जमाने में विफल रहे। हमारे लिए, विशेषकर जिम्मेदार मंत्रियों के लिए यह संभव होना चाहिए कि हम जनता को यह बता सकें कि जिस स्वतंत्रता के लिए कांग्रेस ने आंदोलन शुरू किया है, वह पहले से ही जनता के प्रतिनिधियों की है। आपातकाल के दौरान कुछ क्षेत्रों में यह सीमित हो सकता है। भारतीयों को अंग्रेजों पर भरोसा करना होगा, ब्रिटेन के लिए नहीं, अंग्रेजों को मिलने वाले किसी लाभ के लिए नहीं, बल्कि प्रांत की रक्षा और स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए। आप, राज्यपाल के रूप में, प्रांत के संवैधानिक प्रमुख के रूप में कार्य करेंगे और पूरी तरह से अपने मंत्री की सलाह पर निर्देशित होंगे।" ये अंश मुखर्जी के फजलुल हक़ को लिखे पत्र के हैं।
इसी हिंदू महासभा की आइडियोलॉजी को आगे चलकर जन संघ और फिर भाजपा ने अंगीकार किया। यह विचार अंग्रेजों की विभाजनकारी नीति का प्रारूप मात्र है।
हिंदू महासभा और ऐसे ही विचारों से ओतप्रोत नायकों का एकमात्र उद्देश्य अंग्रेजी सरकार को कायम रखकर उसमें अपने लिए उचित स्थान बनाए रखना था जैसा की अकबर के दरबार में पंडित बीरबल, पंडित तानसेन जैसे रत्नों ने बनाए हुए थे।
मदन मोहन मालवीय ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने हरिद्वार में हर की पौड़ी पर आरती की शुरुआत की थी जैसे भारत में गणेश विसर्जन की शुरुआत तिलक ने की थी। ये कार्यक्रम किसी शंकराचार्य अथवा ऋषि मुनि की देन नहीं हैं बल्कि राजनीतिक कार्यक्रमों को धार्मिक नाम देकर जनता को उन्मादी बनाया गया है।
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