देवनागरी लिपि का आविष्कार और विकास

 #देवनागरी_लिपि_का_आविष्कार_या_विकास 

देवनागरी भारत की एक प्रमुख लिपि है, जिसमें आज, हिन्दी, संस्कृत, मराठी, नेपाली अनेक भाषाएं लिखने का काम होता है। 

लिपि के विकास का एक लम्बा इतिहास है, 6वीं से 7वीं शताब्दी ईस्वी के आसपास देवनागरी लिपि का प्रारंभिक रूप उभरने लगा। 10वीं शताब्दी ई. तक यह एक पूर्ण विकसित लिपि के रूप में स्थापित हो चुकी थी। इस लिपि को विशेष रूप से हिंदी साहित्य, संस्कृत ग्रंथों को लिखने के लिए मानकीकृत किया गया था।

अब आता है प्रधान की देवनागरी का विकास कैसे हुआ? 

लगभग तीसरी शताब्दी ई. पू. से #ब्रह्मी लिपि से देवनागरी का मूल स्रोत है। यह लिपि #मौर्यकालीन अशोक के शिलालेखों में देखने को मिलती है। 

4थी और 6वीं शताब्दी ई. पू. में ब्राह्मी से विकसित होकर विभिन्न प्रादेशिक रूपों में विभाजित होते हुए #गुप्त काल तक यह काफी सुधार से गुजर चुकी थी और बड़े और गोलाई वाले अक्षरों में बदल चुकी थी लिपि #गुप्त_लिपि भी कहलाई। 

7वीं शताब्दी के बाद सिद्धमातृका लिपि निकली जो आगे चलकर #नागरी लिपि कहलाई। 

इसी नागरी लिपि का मानकीकृत, परिष्कृत रूप लगभग 10वीं शताब्दी ई. पू. में देवनागरी लिपि कहलाई। 

विकासकाल कई शताब्दी का रहा और आज भी यह लिपि विकास के क्रम में ही है। और इसमें एक और महत्वपूर्ण प्रश्न है कि देवनागरी लिपि का विकास किसने किया? 

इसका उत्तर बड़ा साधारण है कि इस लिपि का विकास समय के साथ अनेक विद्वानों, लिपिकारों, साहित्यिक और धार्मिक संस्थानों और विद्वानों का महती योगदान है, जरूरतों के हिसाब से विकास हुआ। यह सामूहिक बौद्धिक, और सांस्कृतिक विकास का परिणाम है, जिसमें कई  इसमें भारतीय विद्वानों के अलावा अंग्रेज विद्वानों को भी श्रेय जाता है जिनमें भी

मशहूर यूरोपियन विद्वान सर #विलियम_जॉन्स और #मैक्समूलर की देवनागरी लिपि के मानकीकरण में भूमिका अहम है। 19वीं शताब्दी में जब अंग्रेज भारत में थे, तब संस्कृत और हिंदी ग्रंथों के अध्ययन के लिए देवनागरी लिपि को प्रिंटिंग प्रेस में छापने योग्य बनाना आवश्यक हुआ।

सर विलियम जोन्स और मैक्समूलर जैसे विद्वानों ने संस्कृत और देवनागरी के अध्ययन में रुचि ली और देवनागरी #टाइपफेस यानी देवनागरी #फॉन्ट तैयार करवाने में योगदान दिया।

(ये ठीक वैसा ही है जैसे महाराजा रणजीत सिंह द्वारा कुरान का फारसी से पंजाबी में तजुर्मा करवाना।) 

यूरोपियन विद्वानों द्वारा लिपि का विकास ना कहकर छपाई और मुद्रण के लिए टाइपफेस तैयार करना कहा जा सकता है। यह एक तकनीकी योगदान था ना कि लिपि का विकास या आविष्कार। 

लगभग 1821 में मुंबई के #अमेरिकन_मिशन_प्रेस ने देवनागरी में ग्रंथ छापना शुरू किया।

#निरुक्त, #अष्टाध्यायी, #रामायण, आदि ग्रंथ देवनागरी टाइप में छपे।

बाद में, कंप्यूटर के आने पर Kruti Dev, Mangal, Sanskrit 2003, Lohit Devanagari जैसे डिजिटल फॉन्ट बने और अब अनेकों फ़ॉन्ट में देवनागरी उपलब्ध है। 

ब्राह्मी लिपि जब प्रयोग में थी तब आज की हिंदी का विकास नहीं हुआ था तब ब्राम्ही लिपि में मागधी प्राकृत (मगध क्षेत्र में), अर्धमागधी प्राकृत, गंधारी प्राकृत (उत्तर-पश्चिम भारत में), संस्कृत, प्राचीन तमिल (ब्राम्ही), पाली इत्यादि लिखी जाती थी। 

संस्कृत में शिलालेख दक्षिण एशियाई, दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में अनेकों लिपियों में मिलते हैं। इसके अलावा चीन, जापान, ताजिकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, कजाखस्तान, कोरिया, मंगोलिया, श्रीलंका, अफगानिस्तान इत्यादि में भी संस्कृत के विभिन्न लिपियों में शिलालेख मिलते हैं।

नोट:– हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का आविष्कार किसी यूरोपियन ने नहीं किया जैसा को कुछ आधे पौने विद्वान दावा करते हैं, बल्कि यह विकास के लंबे क्रम का परिणाम है। 

Narender Mor

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